Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


बजरंगी-मुंशीजी, मुझसे उड़नघाइयाँ न बताइए। मुझे भी सभी तरह के ग्राहकों से काम पड़ता है। अगर दस दिन में आऊँगा, तो आप कहेंगे,इतनी देर क्यों की, अब रुपये खर्च हो गए। चार-पाँच दिन में आऊँगा, तो आप कहेंगे, अभी तो रुपये मिले ही नहीं। इसलिए मुझे कोई दिन बता दीजिए, जिसमें मेरा भी हरज न हो और आपको भी सुबीता हो।
ताहिर-दिन बता देने में मुझे कोई उज्र न होता, लेकिन बात यह है कि मेरी तनख्वाह मिलने की कोई तारीख मुकर्रर नहीं है; दो-चार दिनों का हेर-फेर हो जाता है। एक हफ्ते के बाद किसी लड़के को भी भेज दोगे, तो रुपये मिल जाएँगे।
बजरंगी-अच्छी बात है, आप ही का कहना सही। अगर अबकी वादाखिलाफी कीजिएगा, तो फिर माँगने न आऊँगा।
बजरंगी चला गया, तो ताहिर अली डींग मारने लगे-तुम लोग समझते होगे, ये लोग इतनी-इतनी तलब पाते हैं, घर में बटोरकर रखते होंगे,और यहाँ खर्च का यह हाल है कि आधा महीना भी नहीं खत्म होता और रुपये उड़ जाते हैं। शराफत रोग है, और कुछ नहीं।
एक चमार ने कहा-हुजूर, बड़े आदमियों का खर्च भी बड़ा होता है। आप ही लोगों की बदौलत तो गरीबोें की गुजर होती है। घोड़े की लात घोड़ा ही सह सकता है।
ताहिर-अजी, सिर्फ पान में इतना खर्च हो जाता है कि उतने में दो आदमियों का अच्छी तरह गुजर हो सकता है।
चमार-हुजूर, देखते नहीं हैं, बड़े आदमियों की बड़ी बात होती है।
ताहिर अली के आँसू अच्छी तरह न पुँछने पाए थे कि सामने से ठाकुरदीन आता हुआ दिखाई दिया। बेचारे पहले ही से कोई बहाना सोचने लगे। इतने में उसने आकर सलाम किया और बोला-मुंशीजी, कारखाने में कब से हाथ लगेगा?
ताहिर-मसाला जमा हो रहा है। अभी इंजीनियर ने नक्शा नहीं बनाया है, इसी वजह से देर हो रही है।
ठाकुरदीन-इंजीनियर ने भी कुछ लिया होगा? बड़ी बेईमान जात है हुजूर, मैंने भी कुछ दिन ठेकेदारी की है; जो कमाता था, इंजीनियरों को खिला देता था। आखिर घबराकर छोड़ बैठा। इंजीनियर के भाई डॉक्टर होते हैं। रोगी चाहे मरता हो, पर फीस लिए बिना बात न सुनेंगे। फीस के नाम से रिआयत भी करोगे, तो गाड़ी के किराए और दवा के दाम में कस लेंगे, (हिसाब का परत दिखाकर) जरा इधर भी एक निगाह हो जाए।
ताहिर-सब मालूम है, तुमने गलत थोड़े ही लिखा होगा।
ठाकुरदीन-हुजूर, ईमान है, तो सब कुछ है। साथ कोई न जाएगा। तो मुझे क्या हुकुम होता है?
ताहिर-दो-चार दिन की मुहलत दो।
ठाकुरदीन-जैसी आपकी मरजी। हुजूर, चोरी हो जाने से लाचार हो गया, नहीं तो दो-चार रुपयों की कौन बात थी। उस चोरी में तबाह हो गया। घर में फूटा लोटा तक न बचा। दाने को मुहताज हो गया हुजूर! चोरों को आँखों के सामने भागते देखा, उनके पीछे दौड़ा। पागलखाने तक दौड़ता चला गया। अंधोरी रात थी, ऊँच-खाल कुछ न सूझता था। एक गढ़े में गिर पड़ा। फिर उठा। माल बड़ा प्यारा होता है। लेकिन चोर निकल गए थे। थाने में इत्ताला की, थानेदारों की खुशामद की। मुदा गई हुई लच्छमी कहीं लौटती हैं। तो कब आऊँ?
ताहिर-तुम्हारे आने की जरूरत नहीं, मैं खुद भिजवा दूँगा।
ठाकुरदीन-जैसी आपकी खुशी, मुझे कोई उजर नहीं है। मुझे तगादा करते आप ही सरम आती है। कोई भलामानुस हाथ में पैसे रहते हुए टालमटोल नहीं करता, फौरन निकालकर फेंक देता है। आज जरा पान लेने जाना था, इसीलिए चला आया था। सब न हो सके, तो थोड़ा-बहुत दे दीजिए। किसी तरह काम न चला, तब आपके पास आया। आदमी पहचानता हूँ हुजूर, पर मौका ऐसा ही आ पड़ा है।
ठाकुरदीन की विनम्रता और प्रफुल्लित सहृदयता ने ताहिर अली को मुग्ध कर दिया। तुरंत संदूक खोला और पाँच रुपये निकालकर उसके सामने रख दिए। ठाकुरदीन ने रुपये उठाए नहीं, एक क्षण कुछ विचार करता रहा, तब बोला-ये आपके रुपये हैं कि सरकारी रोकड़ के हैं?
ताहिर-तुम ले जाओ, तुम्हें आम खाने से मतलब कि पेड़ गिनने से?
ठाकुरदीन-नहीं मुंशीजी, यह न होगा। अपने रुपये हों, तो दीजिए, मालिक की रोकड़ हो, तो रहने दीजिए; फिर आकर ले जाऊँगा। आपके चार पैसे खाता हूँ, तो आपको आँखों से देखकर गढ़े में न गिरने दूँगा। बुरा मानिए, तो मान जाइए, इसकी चिंता नहीं, साफ बात करने के लिए बदनाम हूँ, आपके रुपये यों अलल्ले-तलल्ले खर्च होंगे, तो एक दिन आप धोखा खाएँगे। सराफत ठाटबाट बढ़ने में नहीं है, अपनी आबरू बचाने में है।
ताहिर अली ने सजल नयन होकर कहा-रुपये लेते जाओ।

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